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गुरुवार, 13 अगस्त 2020

भोगों का उपभोग

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अपनी इंद्रियों एवं मन को विषयों से हटाकर ईश्वर एवं परोपकार में लगाने का नाम ब्रह्मचर्य है । केवल उपस्थ इंद्रिय का संयम मात्र ही ब्रह्मचर्य नहीं, अपितु इंद्रियों एवं मन की शक्तियों का रूपांतरण कर उनको आत्माभिमुखी कर ब्रह्म की प्राप्ति करना ब्रह्मचर्य का लक्ष्य है ।

"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। लेखक :--- योगाचार्य डॉ प्रवीण कुमार शास्त्री


भोग को हम नहीं भोगते, भोग ही हमें भोग लेते हैं । तप  नहीं तपा जाता, हम स्वयं तप जाते हैं । काल का अंत नहीं होता, हम ही काल में समा जाते हैं । तृष्णाएं (चाहत) जीर्ण (क्षीण, कमजोर) नहीं होती, हम स्वयं जीर्ण हो जाते हैं । भोग भोगने से तृप्ति कदापि नहीं होती, अपितु इच्छाएं बलवती होती चली जाती हैं । महर्षि मनु कहते हैं :----

"न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते ।।"
(मनुस्मृति २/९४) लेखक :--- योगाचार्य डॉ प्रवीण कुमार शास्त्री

काम, काम के उपभोग से शांत नहीं होता अपितु अग्नि में जैसे घृत डालने से अग्नि तीव्र होती है । वैसे ही भोगों को भोगने से वासनाएं और अधिक बढ़ जाती हैं ।

महर्षि कपिल सांख्यदर्शन में कहते हैं :---

"न भोगाद् रागशान्तिर्मुनिवत् ।।"

भोग से कभी राग की शांति नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही जाती है । सारी सृष्टि मर्यादाओं के पालन का सतत उपदेश दे रही है । हम भी इस मर्यादित सृष्टि के सहयोगी बनें ।

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

आत्मा की छाया प्राण

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"आत्मन एव प्राणो जायते । यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायत्यस्मिञ्छरीरे ।।"


आत्मनः --- आत्मा से
एषः --- यह
प्राणः --- प्राण
जायते--- उत्पन्न होता है,
यथा--जैसे
पुरुषे --- पुरुष में
(के साथ रहने वाली)
छाया---- छाया
एतस्मिन् --- इस (आत्मा) में 
एतत् --- यह (प्राण तत्व)
आततम्--- फैला, साथ लगा
मनोकृतेन ---मन द्वारा (मन की प्रेरणा से) किए हुए कर्म से,
आयाति --- आता है,
अस्मिन् ---इस
शरीरे --- शरीर में


आत्मा से प्राण की उत्पत्ति होती है । जैसे पुरुष के साथ छाया लगी है, इसी प्रकार आत्मा के साथ प्राण लगा है ।पुरुष से छाया की उत्पत्ति है । आत्मा से प्राण की उत्पत्ति है । मन के किए से वह इस शरीर में आता है । मन की वासनाएं रस्सी बनकर आत्मा को शरीर में खींच लाती है ।आत्मा शरीर में आया नहीं कि प्राण चलने लगा ।


वस्तुतः मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है । यदि मन संसार में लग जाता है तो व्यक्ति बंधन में फंसता है और यदि मन परमात्मा में लग जाता है, अध्यात्म में लग जाता है, धर्म में लग जाता है तो व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त करता है ।  इसीलिए संस्कृत में एक कहावत है :---

"मन एव कारणं बन्धनमोक्षयोः" 

सोमवार, 29 जून 2020

ज्ञानेंद्रियों का कर्म


ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं :--- आंखें, कान, नाक, रसना और त्वचा । इनमें प्रमुख है :--- आंख और कान । आंखों और कानों से हम बाहरी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं । इस ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया इस प्रकार है :---

"आत्ममनसोः संयोगविशेषात्संकाराच्च स्मृतिः ।।"

जब आंख और कान (अथवा अन्य 3 ज्ञानेंद्रियां) किसी पदार्थ के साथ संबद्ध होते हैं तो उस इंद्रिय के साथ मन का संयोग होता है और मन के साथ आत्मा का----- इस क्रमबद्ध प्रक्रिया से संस्कार बनते हैं और संस्कारों से स्मृति का निर्माण होता है । स्मृति के पीछे संस्कार संस्कारों के पीछे आत्मा और आत्मा के पीछे मन और मन के साथ इंद्रिय संयोग और इंद्रिय के साथ पदार्थ का संयोग यह एक क्रम है । 

इसे इस तरह से समझना चाहिए कि कहीं जाते हुए आपने जलेबी देखी । सुन्दर जलेबी देखकर मीठी-मीठी गन्ध नाक से सुंघकर अपनी प्रतिक्रिया की । आंख, नाक और रसना ने खाने की इच्छा व्यक्त की । उन सब ने अपनी इच्छा मन से प्रकट की । मन ने अपनी इच्छा बुद्धि के पास प्रस्तुत की । बुद्धि ने उचित अनुचित परामर्श करके आत्मा के पास वही इच्छा भेज दी ।  बुद्धि का काम है , निर्णय करना कि इसे खाया जाए या नहीं खाया जाए । वह अपना निर्णय आत्मा को भेजती है । यदि आत्मा कमजोर है इंद्रियों का गुलाम है तो वह बात मान लेगा और यदि वह स्वतंत्र है तो उस पर शत-शत विचार करके उचित निर्णय लेगा । 

इस प्रक्रिया में प्रतिदिन उसी प्रकार से कार्य करने से संस्कार बनते हैं ।

शुक्रवार, 26 जून 2020

सहनशीलता

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             जीवन में सुख-दुःख का चक्र चलता रहता है।
 कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बड़ी से बड़ी विपदा को भी हँसकर झेल जाते हैं।

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, 
सदसि  वाक्पटुता  युधि  विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं  श्रुतौ, 
प्रकृतिसिद्धमिदं   हि  महात्मनाम्   ।।
(नीतिशतकम् ५९)

विपत्ति में धैर्य ,समृद्धि में क्षमाशीलता , सभा में वाक्पटु , युद्ध में पराक्रम ,यशस्वी ,वेद शास्त्रों का ज्ञाता ,ये छः गुण महापुरुषों में स्वाभाविक रूप से होते हैं  ।


कुछ लोग ऐसे होते हैं जो एक दुःख से ही इतने टूट जाते हैं कि,  पूरे जीवन उस दुःख से मुक्त नहीं हो पाते हैं। हमेशा अपने दुःख को सीने से लगाये घूमते रहते हैं।

  जबकि हकीकत यह है कि जो बीत गया सो बीत गया। अब उसमे तो कुछ नहीं किया जा सकता,  पर इतना जरूर है कि उसे भुलाकर अपने भविष्य को एक नई दिशा देने के बारे में तो सोचा ही जा सकता है।
    
  हम बच्चों को बहुत सारी बातें सिखाते हैं मगर उनसे कुछ भी नहीं सीखते।

बच्चों से भूलने की कला हमको सीखनी चाहिए। हम बच्चों पर गुस्सा करते हैं, उन्हें डांटते भी है लेकिन बच्चे थोड़ी देर बाद उस बुरे अनुभव को भूल जाते हैं।
 
 सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् ।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ।।

अर्थात जो कार्य दूसरे के अधीन में होता है वह सदैव मनुष्य को दुःख प्रदान करता है और जो कार्य अपने वश में होता है अथवा अपने नियन्त्रण में होता है वह सदैव सुख देने वाला होता है । संक्षेप में यही सुख और दुःख के लक्षण समझने चाहिए ।

बुधवार, 24 जून 2020

परिश्रम शील बने

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लेखक :--- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

मानव जीवन परिश्रम करने के लिए ही मिला है । परिश्रम अर्थात् कर्म करना । कर्म करके ही व्यक्ति महान् बनता है । कर्म करके ही व्यक्ति मोक्ष की ओर बढ़ता है । जो व्यक्ति कर्म नहीं करता, परिश्रम नहीं करता, उसका जीवन निम्न गति का हो जाता है । ऐसे मनुष्यों को परमात्मा कर्म करने के लिए दूसरी योनियाॅ प्रदान करते हैं  । जो व्यक्ति मानव जीवन में आरामतलबी हो जाता है, आलसी हो जाता है, परिश्रमहीन हो जाता है । ऐसे व्यक्तियों को अगले जन्म में गधा, बैल, भैंसा या ऐसी योनि देते हैं, जिसमें बहुत अधिक परिश्रम करना पड़े ।इसलिए परिश्रम से हमें कभी अलग नहीं होना चाहिए । लेखक :--- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

वैसे भी यह शरीर हम सब को निःशुल्क मिला है । हमने इसके लिए कोई मूल्य नहीं चुकाया है । परमात्मा की दी हुई रचना है । तो इस शरीर से बहुत मेहनत करवानी चाहिए । हां, इसकी रक्षा करनी आवश्यक है । इसकी वृद्धि करनी आवश्यक है । किंतु फ्री का माल है इसलिए शरीर से बहुत मेहनत करवानी चाहिए । लेखक :--- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

महान् नीतिकार महात्मा विदुर ने कहा है कि गरीब होकर जो मेहनत न करें, उसे बहुत बड़ी सजा देनी चाहिए :--


द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ॥

दो प्रकार के लोग होते हैं, जिनके गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए. पहला, वह व्यक्ति जो अमीर होते हुए दान न करता हो. दूसरा, वह व्यक्ति जो गरीब होते हुए कठिन परिश्रम नहीं करता हो । लेखक :--- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं पुत्राश्च दाराश्च सहृज्जनाश्च ।
तमर्थवन्तं पुनराश्रयन्ति अर्थो हि लोके मनुष्यस्य बन्धुः ॥

मित्र, बच्चे, पत्नी और सभी सगे-सम्बन्धी उस व्यक्ति को छोड़ देते हैं जिस व्यक्ति के पास धन नहीं होता है । फिर वही सभी लोग उसी व्यक्ति के पास वापस आ जाते हैं, जब वह व्यक्ति धनवान् हो जाता है । धन हीं इस संसार में व्यक्ति का मित्र होता है । लेखक :--- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥

वह व्यक्ति जो विभिन्न देशों में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है । उस व्यक्ति की बुद्धि का विस्तार उसी तरह होता है, जैसे तेल का बूॅद पानी में गिरने के बाद फैल जाती है । लेखक :--- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

जिस व्यक्ति के पास कोई कला नहीं होती,उसे कोई नहीं चाहता ।

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥

जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील, न गुण और न धर्म । वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में जानवर की तरह से घूमते रहते हैं । लेखक :--- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

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कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति ।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम् ॥

जबतक काम पूरे नहीं होते हैं, तबतक लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं. काम पूरा होने के बाद लोग दूसरे व्यक्ति को भूल जाते हैं. ठीक उसी तरह जैसे, नदी पार करने के बाद नाव का कोई उपयोग नहीं रह जाता है । लेखक :--- योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

कुछ लोग परिश्रम तो करना नहीं चाहते हैं, लेकिन सफल होना चाहते हैं । विश्व में बहुत महान् होना चाहते हैं । प्रसिद्ध होना चाहते हैं । ऐसे व्यक्ति केवल काल्पनिक होते हैं । आकाश के पुष्प की तरह होते हैं । उन्हें सफलता कभी नहीं मिल सकती ।

मंगलवार, 23 जून 2020

सभी प्राणी मित्र हो

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संसार में कोई भी किसी का शत्रु न हो । सभी व्यक्ति ऐसी भावना रखें । ऐसा व्यवहार करने से व्यक्ति अधिक से अधिक सुखी रह सकता है । जिस व्यक्ति के अधिक मित्र होते हैं, वे अधिक सुखी होते हैं । जिसके अधिक शत्रु होते हैं, वे अधिक दुःखी होते हैं । सर्वत्र भय का वातावरण होता है । जहां भी जाता है किसी न किसी से भय लगा रहता है । इसलिए सभी को मित्रता की दृष्टि से देखना चाहिए ।

यजुर्वेद में एक मंत्र आया है, जिसमें कहा गया है कि सभी को मित्रता की दृष्टि से देखें, सभी प्राणी मेरे मित्र हों, कोई मेरा शत्रु न हो  :----

"मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।।" (यजुर्वेद ३६/१८)

मनुष्य कारण से ही किसी के साथ मित्रता या शत्रुता करता है । अतः मनुष्य को अकारण शत्रुता नहीं करनी चाहिए । यदि हो सके तो इस विश्व में सभी के साथ मित्रता का ही व्यवहार करना चाहिए :---

"कारणान्मित्रतां याति कारणादेति शत्रुताम् ।
तस्मान्मित्रत्वमेवात्र योज्यं वैरं न धीमता ।।"
(पञ्चतन्त्रम्, मित्रसम्प्राप्तिः २/३४)

गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि सभी भूतों में अपने को देखो और अपने में सभी प्राणी को देखो । इसका अभिप्राय यही हुआ कि सभी अपने जैसे हैं । जिस प्रकार से मुझे अपने प्राण अच्छे लगते हैं, उसी प्रकार से सभी को अपने प्राण प्रिय लगते हैं । इसलिए किसी के साथ शत्रुता नहीं रखनी चाहिए :---

"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।।"
(गीता ६/२९)

ईशोपनिषद् में कहा गया है कि  जो निःसंदेह सभी प्राणियों को अपनी आत्मा (या परमात्मा) में देखता है, और सभी प्राणियों में स्वयं की आत्मा (या परमात्मा) का दर्शन पाता है, वह किसी से घृणा नहीं करता ।

"यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्न्येवानुपश्यति ।
 सर्वभूतेषु चात्मानम् ततो न विचिकित्सति ।।" 
(ईशोपनिषद् ६ )


सोमवार, 22 जून 2020

धन की तीन गतियां

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दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।।
यो न ददाति  न भुङ्क्ते  तस्य तृतीया गतिर्भवति।।

धन की तीन गतियां मानी गई है :--दान करना, भोग करना और नाश होना । जो व्यक्ति अपने धन का न तो दान करता है और न खुद उसका उपयोग करता है तो उसकी तीसरी गति होती है अर्थात् उस धन का नाश हो जाता है । लेखक--योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

जैसे शरीर में खून का प्रवाह अच्छा रहने से व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है, वैसे ही बाजार में पैसे का प्रवाह चलते रहने से अर्थव्यवस्था का स्वास्थ्य भी बेहतर बनता है। जो लोग पैसा घरों की तिजोरियों में बंद करके रख देते हैं, न सिर्फ अपना नुकसान करते हैं अपितु देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार भी कम करते हैं। पैसे का स्वभाव ही ऐसा है कि वह जितना खर्च होता है, उतना वापस आता है। पैसे को गांठ में बांधने की बजाय ठीक से खर्च करना बेहतर विकल्प है।  लेखक--योगाचार्य डॉक्टर प्रवीण कुमार शास्त्री

पैसे को जमा करके रखने वालों की तिजोरी पर सरकार की नजर पड़ती है और सरकार उसे ब्लैक मनी घोषित करके कब्जा कर लेती है । यही तीसरी गति है । इसलिए पैसे का सदुपयोग करें । दूसरों को दान दे, जिसको आवश्यकता है और वह उसका सदुपयोग कर सकें । उसका खुद अपने जीवन पर खर्च करें, अन्यथा तीसरी गति होगी । कोई तीसरा ले जाएगा ।

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